भाषार्जन प्रक्रिया
भाषा अर्जन ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत हम अपने आस पास के वातावरण,
माता पिता और अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में रहकर भाषा सीखते है।
प्राकृतिक प्रक्रिया
कोई औपचारिक साधन की आवश्यकता नही पड़ती है।
यह एक प्रकार से मातृ भाषा या क्षेत्रीय भाषा होती है।
इसे भाषा प्रथम के नाम से भी जानते है।
भाषा अर्जन ( Language acquisition )
हम आस पास के वातावरण,आस पास के लोगो के माध्यम से भाषा सीखते है।
इसमें किताब और व्याकरण की जरूरत नही पड़ती ।
चॉम्स्की - ‘‘भाषा अर्जन की क्षमता बालकों में जन्मजात होती है और वह भाषा की व्यवस्था को पहचानने की शक्ति के साथ पैदा होता है।’’
वैगोत्सकी - " बालक भाषा का अर्जन परिवेश और समाज के माध्यम से करता है और ये भाषा दो प्रकार की होती है आत्मकेंद्रित और बह्याकेंदृत जो क्रमशः स्वं संवाद और समाज संवाद के लिए प्रयोग की जाती है"
भाषा अर्जन की विधियाँ
१. अनुकरण: बालक जब भी भाषा के नए नियम या व्याकरण के नियम सुनता है, वह उसे बिना अर्थ जाने दोहराता है। इसके द्वारा वह इन नियमों को आत्मसात कर अपने भाषा प्रयोग में लाने लगता है।
२. अभ्यास: भाषा के नए नियमों और रूपों का विद्यार्थी बार-बार अभ्यास करते हैं, जिससे नियम उनके भाषा प्रयोग में शामिल हो जाते हैं।
३. पुनरावृत्ति: बालक भाषा के जिन नियमों या रूपों को बार-बार सुनता है, वही नियम उसे याद हो जाते हैं और वह उसे अपने व्यवहार में लाने लगता है।
४. सहजता: बालक अपने जन्म के कुछ महीनों तक केवल कुछ धवनियों का अधिक प्रयोग करता है । ये धवनियाँ कोई वर्ण या अक्षर न होकर उसके मुख से निकलने वाली विभिन्न प्रकार की धवनियाँ हो सकती है, परन्तु जब वह अपने आस-पास रहने वाले लोगों के मुख से विभिन्न धवनियाँ (अक्षर/शब्दों) को सुनता है तो वह धीरे धीरे उनको समझने लगता है ।
भाषा-अर्जन पर निम्न परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है
•परिवेश
•सीखने की इच्छाशक्ति
•सिखाई जाने वाली भाषा का छात्र के जीवन से सम्बन्ध
•छात्र की मानसिक तथा शारीरिक स्थिति
•शब्द-भंडार का विकास
१. परिवेश: बालक अपने परिवारजनों के द्वारा प्रयोग में लायी जाने वाली भाषा का अनुकरण कर अपनी पहली भाषा सीखता है। यह भाषा उसकी अभव्यक्ति का पहला साधन होती है जो उसे अपने परिवेश द्वारा प्राप्त होती है। यदि परिवेश में भाषा का उच्चारण गलत होता है तो बालक भी गलत उच्चारण सीखता है।
२. सीखने की इच्छाशक्ति: बालक को भाषा तब तक नही सिखाई जा सकती जब तक उसकी भाषा सीखने की इच्छा न हो । अतः द्वितीय भाषा को सीखने के लिए उसके अंदर नयी भाषा के प्रति इच्छाशक्ति होना आवश्यक है।
३. सिखाई जाने वाली भाषा का छात्र के जीवन से सम्बन्ध: मनोवैज्ञानिक के अनुसार, बालक उन विषय वस्तु को जल्दी सीख और समझ लेता है जिसका समबंध उसके दैनिक जीवन से होता है ।
४. छात्र की मानसिक तथा शारीरिक स्थिति: जिस बालक के स्वर तंत्र का विकास भलीभाँति होता है और अंगों में परिपक्वता होती है वह भाषा पर नियंत्रण प्राप्त करता है।
५. शब्द-भंडार का विकास: बालक के भाषा विकास में शब्द-भंडार बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वर्णों से शब्दों तथा शब्दों से वाक्य बनते है। वाक्यों से भाषा का निर्माण होता है। जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने भावों तथा विचारों को प्रकट करता है।
@iamchandruss
भाषा अर्जन ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत हम अपने आस पास के वातावरण,
माता पिता और अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में रहकर भाषा सीखते है।
प्राकृतिक प्रक्रिया
कोई औपचारिक साधन की आवश्यकता नही पड़ती है।
यह एक प्रकार से मातृ भाषा या क्षेत्रीय भाषा होती है।
इसे भाषा प्रथम के नाम से भी जानते है।
भाषा अर्जन ( Language acquisition )
हम आस पास के वातावरण,आस पास के लोगो के माध्यम से भाषा सीखते है।
इसमें किताब और व्याकरण की जरूरत नही पड़ती ।
चॉम्स्की - ‘‘भाषा अर्जन की क्षमता बालकों में जन्मजात होती है और वह भाषा की व्यवस्था को पहचानने की शक्ति के साथ पैदा होता है।’’
वैगोत्सकी - " बालक भाषा का अर्जन परिवेश और समाज के माध्यम से करता है और ये भाषा दो प्रकार की होती है आत्मकेंद्रित और बह्याकेंदृत जो क्रमशः स्वं संवाद और समाज संवाद के लिए प्रयोग की जाती है"
भाषा अर्जन की विधियाँ
१. अनुकरण: बालक जब भी भाषा के नए नियम या व्याकरण के नियम सुनता है, वह उसे बिना अर्थ जाने दोहराता है। इसके द्वारा वह इन नियमों को आत्मसात कर अपने भाषा प्रयोग में लाने लगता है।
२. अभ्यास: भाषा के नए नियमों और रूपों का विद्यार्थी बार-बार अभ्यास करते हैं, जिससे नियम उनके भाषा प्रयोग में शामिल हो जाते हैं।
३. पुनरावृत्ति: बालक भाषा के जिन नियमों या रूपों को बार-बार सुनता है, वही नियम उसे याद हो जाते हैं और वह उसे अपने व्यवहार में लाने लगता है।
४. सहजता: बालक अपने जन्म के कुछ महीनों तक केवल कुछ धवनियों का अधिक प्रयोग करता है । ये धवनियाँ कोई वर्ण या अक्षर न होकर उसके मुख से निकलने वाली विभिन्न प्रकार की धवनियाँ हो सकती है, परन्तु जब वह अपने आस-पास रहने वाले लोगों के मुख से विभिन्न धवनियाँ (अक्षर/शब्दों) को सुनता है तो वह धीरे धीरे उनको समझने लगता है ।
भाषा-अर्जन पर निम्न परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है
•परिवेश
•सीखने की इच्छाशक्ति
•सिखाई जाने वाली भाषा का छात्र के जीवन से सम्बन्ध
•छात्र की मानसिक तथा शारीरिक स्थिति
•शब्द-भंडार का विकास
१. परिवेश: बालक अपने परिवारजनों के द्वारा प्रयोग में लायी जाने वाली भाषा का अनुकरण कर अपनी पहली भाषा सीखता है। यह भाषा उसकी अभव्यक्ति का पहला साधन होती है जो उसे अपने परिवेश द्वारा प्राप्त होती है। यदि परिवेश में भाषा का उच्चारण गलत होता है तो बालक भी गलत उच्चारण सीखता है।
२. सीखने की इच्छाशक्ति: बालक को भाषा तब तक नही सिखाई जा सकती जब तक उसकी भाषा सीखने की इच्छा न हो । अतः द्वितीय भाषा को सीखने के लिए उसके अंदर नयी भाषा के प्रति इच्छाशक्ति होना आवश्यक है।
३. सिखाई जाने वाली भाषा का छात्र के जीवन से सम्बन्ध: मनोवैज्ञानिक के अनुसार, बालक उन विषय वस्तु को जल्दी सीख और समझ लेता है जिसका समबंध उसके दैनिक जीवन से होता है ।
४. छात्र की मानसिक तथा शारीरिक स्थिति: जिस बालक के स्वर तंत्र का विकास भलीभाँति होता है और अंगों में परिपक्वता होती है वह भाषा पर नियंत्रण प्राप्त करता है।
५. शब्द-भंडार का विकास: बालक के भाषा विकास में शब्द-भंडार बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वर्णों से शब्दों तथा शब्दों से वाक्य बनते है। वाक्यों से भाषा का निर्माण होता है। जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने भावों तथा विचारों को प्रकट करता है।
@iamchandruss
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